विदेशी चंदे की फांस में फंसते एनजीओ पर रोक लगी तो हो रहा है हंगामा
दिल्ली: विदेश से मिलने वाला दान कई कारणों से आजकल समाचारों की सुर्खियों में बना है। ऐतिहासिक परंपरा में देखें तो हमारे देश ही नहीं पूरी दुनिया में दो तरह से दान-पुण्य का काम होता रहा है।
देश भर में गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को उनके सामाजिक या धार्मिक कार्यो के आधार पर दान दिए जाते रहे हैं। साथ ही ये आरोप भी लगते रहे हैं कि ऐसे दान का उद्देश्य कोई छिपा उद्देश्य हासिल करना है, जो कानूनी मान्यताओं को भी धता बताता है। हाल में जब देश के लगभग छह हजार संस्थानों को विदेशी चंदा लेने से रोकने सबंधी कार्रवाई हुई, तो इस पर काफी हंगामा उठ खड़ा हुआ। कहा गया कि इस तरह से केंद्र सरकार एनजीओ के कामकाज में बाधा डाल रही है।
इस रोक से देश के विभिन्न राज्यों में अनेक एनजीओ की छत्रछाया में चल रहे अहम मानवीय और सामाजिक कार्य बुरी तरह प्रभावित होंगे। हालिया कार्रवाई की बात करें तो देश के छह हजार संस्थानों का विदेशी चंदा लेने संबंधी जरूरी एफसीआरए रजिस्ट्रेशन एक जनवरी, 2022 को खत्म हो गया। फारेन कंट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) एक्ट यानी एफसीआरए ऐसा कानून है जो मूल रूप से विदेश से आ रहे पैसों को नियमित करने के लिए लागू किया गया है।
एफसीआरए के तहत अपना पंजीकरण गंवाने वालों में अनेक महत्वपूर्ण संस्थान हैं। हाल में इसकी चर्चा तब ज्यादा उठी थी, जब गृह मंत्रालय ने मदर टेरेसा के मिशनरीज आफ चैरिटी के एफसीआरए लाइसेंस को नवीनीकृत करने से इन्कार कर दिया था। यह पंजीकरण गंवाने का सीधा अर्थ यह है कि ये सारे संस्थान अब विदेशी संस्थाओं से अपने कामकाज के लिए कोई चंदा नहीं ले सकेंगे। यहां दो महत्वपूर्ण सवाल हैं- एफसीआरए क्या है व इसकी जरूरत क्यों है और तमाम सामाजिक और धार्मिक कार्यो में लगे संगठनों ने ऐसी कौन सी अनियमिताएं की हैं जो उनका पंजीकरण खत्म हो गया है।
इस संशोधन के पश्चात विदेशी कंपनियों की भारतीय सहायक कंपनियों (जिन्हें पहले प्रतिबंधित माना जाता था) के माध्यम से राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन को एफसीआरए से छूट दी गई। वर्ष 2020 में इस कानून में एक संशोधन और किया गया। इसमें व्यवस्था की गई कि विदेश से आए धन को कोई व्यक्ति या संगठन किसी अन्य व्यक्ति/ संगठन को स्थानांतरित (ट्रांसफर) नहीं कर सकता। इसके अलावा यह भी जरूरी कर दिया गया कि प्रत्येक एसीआरए-पंजीकृत संगठन दिल्ली स्थित सरकारी बैंक यानी स्टेट बैंक आफ इंडिया में अपना एफसीआरए खाता खोले जिसमें वह विदेश से आए पैसे को प्राप्त कर सके।
दान-पुण्य यानी चैरिटी के बल पर चलने वाले एनजीओ विदेशी योगदान हासिल कर सकते हैं, बशर्ते वे खुद को एफसीआरए के तहत पंजीकृत कराएं। या विदेशी धन पाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय से पूर्व अनुमति प्राप्त कर लें। इस तरह विदेश से चंदा या दान लेने वाले हरेक संगठन के लिए जरूरी है कि वह एफसीआरए के तहत अपना पंजीकरण कराए। ध्यान रखना होगा कि एक बार कराया गया पंजीकरण पांच साल के लिए मान्य या वैध रहता है। पांच साल बाद इसे नवीनीकृत कराया जा सकता है।
यदि कोई संगठन ऐसा करने से चूक जाता है, तो न केवल उसका पंजीकरण रद कर दिया जाता है, बल्कि अतीत में मिल चुके दान या चंदे से भी उसे हाथ धोना पड़ सकता है। एक बार पंजीकरण रद होने के बाद वह व्यक्ति या संगठन अगले तीन साल के लिए नए पंजीकरण के लिए आवेदन नहीं कर सकता है। साथ ही यदि नवीनीकरण का आवेदन नामंजूर कर दिया जाता है तो ऐसी कोई अवधि नहीं है जिसके बाद दोबारा आवेदन भेज सकें। पंजीकरण गंवाने वाले संगठनों से जुड़े विशेषज्ञों का आरोप है कि एफसीआरए पंजीकरण के नवीनीकरण की प्रक्रिया काफी लंबी बना दी गई है।
इससे संगठनों का कामकाज प्रभावित होता है।इधर, जिन संगठनों का एफसीआरए पंजीकरण निरस्त हुआ है, वे इससे काफी बेचैनी महसूस कर रहे हैं। उनका आरोप है कि पंजीकरण या लाइसेंस निरस्त होने की आशंका की सूचना उन्हें समय पर नहीं मिली, जिससे वे नवीनीकरण का आवेदन नहीं दे पाए। इससे उनका कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। वैसे यह पहला मौका नहीं है, जब सामाजिक कार्यो में लगे किसी स्थापित एनजीओ पर यह कार्रवाई हुई हो।
इसके पहले 2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार ने ग्रीनपीस और एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित कई गैर सरकारी संगठनों के एफसीआरए पंजीकरण रद किए हैं। आपातकाल के दौरान वर्ष 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब एफसीआरए को लागू किया था, तो इसका उद्देश्य इस कानून के अंतर्गत भारत की चुनावी प्रक्रिया और लोकतंत्र में बाहरी हस्तक्षेप को रोकना बताया गया था। उस दौर में शीत युद्ध चरम पर था।
ऐसे में भारत की राजनीति और नीतियों को बाहरी असर से बचाने के घोषित उद्देश्य से इस कानून को बनाया गया था। वर्ष 2010 में एक नया सख्त एफसीआरए कानून बनाया गया जिसमें उन चीजों को शामिल किया गया जो पिछले कानून में शामिल नहीं थीं। इसके बाद वर्ष 2020 में जब लोकसभा ने एफसीआरए संशोधन विधेयक 2020 को मंजूरी दी, तो एनजीओ के पंजीकरण के लिए पदाधिकारियों का आधार नंबर जरूरी कर दिया गया और लोकसेवकों के विदेशों से रकम हासिल करने पर पाबंदी का प्रविधान कर दिया गया।
इस सख्ती का यह कहते हुए पक्ष लिया गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को मजबूत एवं सुरक्षित रखना चाहते हैं। ऐसे में यह संशोधन विधेयक आत्मनिर्भर भारत के लिए जरूरी है। चूंकि एनजीओ सरकार की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करते हैं, ऐसे में विदेशी अंशदान में पूरी पारदर्शिता जरूरी है। आवश्यकता इस बात की है कि एनजीओ को विदेशी पैसा जिस कार्य के लिए मिलता है, वह उसी कार्य में खर्च होना चाहिए।
विदेशी धन के आगमन और उसके इस्तेमाल में पारदर्शिता की मांग को इससे समझा जा सकता है कि देश में आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद, धर्मातरण जैसी देश विरोधी गतिविधियों पर कानून और सेना-पुलिस के द्वारा पूरी तरह नियंत्रण नहीं लगाया जा सकता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इन्हें देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों-राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित गैर-सरकारी संगठनों से भरपूर आर्थिक मदद मिलती रही है। इसी के दृष्टिगत मोदी सरकार ने बीते लगभग सात वर्षो में हजारों गैर-सरकारी संगठनों पर कार्रवाई की है और 20,000 से अधिक संगठनों के एफसीआरए लाइसेंस रद किए हैं।
आइआइटी दिल्ली, दिल्ली विश्वविद्यालय और टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंस की टीम द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में यह उजागर हो चुका है कि करोड़ों का दान जुटाने वाले एनजीओ या तो कोई काम नहीं करते या फिर नियमों का उल्लंघन कर वे काले धन की मनीलांड्रिंग में संलिप्त रहते हैं। इन जांचों के दौरान कई एनजीओ के पास न तो कोई इंफ्रास्ट्रक्चर है और न ही स्टाफ पाया गया। जांच में सबसे ज्यादा अनियमितता विदेशों से आने वाले हजारों करोड़ रूपये के अनुदान में पाई गई। तमाम अनियमितताओं और गैरकानूनी कार्यो में एनजीओ की सक्रिय भूमिका को देखते हुए ही मोदी सरकार ने 2014 से इन पर अंकुश लगाने की कार्रवाई शुरू कर दी थी।
गैरसरकारी संगठनों की प्रासंगिकतावर्तमान में यह एक महत्वपूर्ण सवाल बन गया है कि जब कई एनजीओ अपने कार्यों को लेकर संदिग्ध माने जा रहे हैं, तो क्या उनका होना जरूरी है। असल में भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सामाजिक विकास का हर काम सरकार के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। सरकार भी हर स्तर पर अपना प्रभाव और दखल नहीं बना सकती। ऐसे में गैर सरकारी संगठन आगे आते हैं, जो कई निजी और कई बार बड़े सांगठनिक स्तर पर पूंजी जुटाकर संसाधन पैदा करते हैं और समाज के विकास का काम करते हैं।
अनुमान है कि हमारे देश में करीब 34 लाख एनजीओ हैं जो वंचित समुदायों और हाशिये पर पड़े लोगों की मदद से लेकर आपदा-राहत और विकास के कई काम कर रहे हैं। ये संगठन ऐसे इलाकों और लोगों तक मदद पहुंचाते हैं, जहां सरकार और राज्यों का प्रशासनिक तबका नहीं पहुंच पाता है। जैसे कोविड महामारी के दौरान प्रवासी श्रमिकों के रोजगार और दवा से लेकर आक्सीजन सिलेंडर जुटाने तक के काम ऐसे ही असंख्य एनजीओ ने किए।
यही नहीं, श्रम अधिकार, सेहत की देखभाल, पर्यावरण, शिक्षा व कानूनी मुद्दों और जेंडर संबंधी विषयों पर भी ये एनजीओ सक्रियता से काम करते हैं। कई बार ये उल्लेखनीय मुद्दों पर दबाव भी बनाते हैं और सरकारों को कानून बनाने के लिए बाध्य करते हैं। अक्सर ये सारे काम देश और विदेश से मिलने वाले दान या चंदे के बल पर कराए जाते हैं। यहीं पर एनजीओ की विश्वसनीयता का संकट शुरू हो जाता है।
आरोप लगता है कि बहुतेरे एनजीओ काले धन को सफेद बनाने के अवैध कारोबार में संलग्न हैं। अतीत में कई गैर-सरकारी संगठनों को धन की हेराफेरी में लिप्त पाए जाने के बाद ब्लैकलिस्ट किया गया था। इनके कार्यो में पारदर्शिता के अभाव के आरोप भी लगे हैं। इन्हें देश की आर्थिक विकास दर को प्रभावित करने विशेषत: उसमें कमी लाने का आरोप भी झेलना पड़ा है। जैसे भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट में कई एनजीओ पर भारत की सकल घरेलू उत्पाद को सालाना दो से तीन प्रतिशत कम करने का आरोप लगाया गया था।
मार्च 2021 के केंद्रीय गृह मंत्रालय के आकलन के मुताबिक गैर सरकारी संस्थानों को पिछले चार वर्षो में 50,975 करोड़ रुपये विदेशी चंदे के रूप में प्राप्त हुए थे। यह चंदा करीब 18,000 एनजीओ को 130 देशों से प्राप्त हुआ था और चंदा देने वाले देशों में अमेरिका सबसे आगे था। इसके बाद ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, फ्रांस और स्पेन से चंदा मिला था। साफ है कि जब इतनी बड़ी रकम विदेशी चंदे के रूप में मिल रही है, तो इस पूरे मामले में नियमन और पारदर्शिता की जरूरत बनती ही है।
(लेखक एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध है)