अरावली पर्वत शृंखला एक बार फिर राष्ट्रीय बहस के केंद्र में है। वजह बना है सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार द्वारा दाखिल एक जवाब और उसके बाद अरावली की परिभाषा को लेकर सामने आई नई रिपोर्ट। इसके बाद सोशल मीडिया से लेकर सियासी गलियारों तक ‘सेव अरावली’ अभियान तेज हो गया है। पर्यावरणविद, विपक्षी दल और यहां तक कि सत्तारूढ़ दल के कुछ नेता भी सरकार के रुख पर सवाल उठा रहे हैं।
तो आखिर अरावली पर्वत शृंखला इतनी अहम क्यों है? विवाद की जड़ क्या है और इस पर विशेषज्ञ, अदालत और राजनीतिक दल क्या कह रहे हैं—आइए विस्तार से समझते हैं।
क्या है अरावली पर्वत शृंखला और क्यों है यह बेहद महत्वपूर्ण?
अरावली पर्वत शृंखला को दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत प्रणालियों में से एक माना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह करीब दो अरब वर्ष पुरानी है और भारत की सबसे पुरानी पर्वत शृंखला है। यह दिल्ली से गुजरात तक लगभग 650 से 800 किलोमीटर में फैली हुई है, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा राजस्थान में स्थित है।
अरावली थार रेगिस्तान और उत्तर भारत के उपजाऊ मैदानों के बीच प्राकृतिक पारिस्थितिकी दीवार (इकोलॉजिकल बैरियर) की तरह काम करती है। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि अरावली न होती, तो थार रेगिस्तान की रेत हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली तक फैल सकती थी।
इसके अलावा अरावली—
भूजल रिचार्ज में अहम भूमिका निभाती है
जलवायु संतुलन बनाए रखती है
जैव विविधता का बड़ा केंद्र है
चंबल, साबरमती और लूनी जैसी नदियों का उद्गम क्षेत्र है
खनन और दोहन से क्यों खतरे में है अरावली?
अरावली में चूना पत्थर, संगमरमर, ग्रेनाइट, लेड, जिंक, कॉपर और अन्य खनिजों की भरमार है। इसी कारण यहां दशकों से खनन होता रहा है। बीते 30–40 वर्षों में पत्थर और रेत के अत्यधिक खनन ने पर्यावरणीय संतुलन को गंभीर नुकसान पहुंचाया है।
खनन के कारण—
वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) खराब हुआ
भूजल स्तर तेजी से गिरा
वन क्षेत्र सिमटते गए
इसी वजह से अलग-अलग समय पर सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी ने अरावली के कई हिस्सों में खनन पर रोक लगाई।
विवाद की असली वजह क्या है?
असल विवाद अरावली की परिभाषा को लेकर है।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अलग-अलग राज्य और संस्थाएं अरावली की पहचान के लिए अलग मानक अपना रही हैं।
2010 में फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) ने कहा था कि वही क्षेत्र अरावली माने जाएंगे—
जिनकी ऊंचाई 100 मीटर से अधिक हो,ढलान 3 डिग्री से ज्यादा हो
दो पहाड़ियों के बीच की दूरी 500 मीटर से कम हो
इस पर आपत्तियों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय, एफएसआई, राज्यों के वन विभाग और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) के विशेषज्ञों की एक समिति बनाई।
नवंबर 2025 में क्या हुआ?
कोर्ट ने समिति की रिपोर्ट स्वीकार की, जिसमें कहा गया कि केवल 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली पर्वत शृंखला का हिस्सा माना जाए।
क्यों भड़क उठा विरोध?
एमिकस क्यूरी के. परमेश्वर सहित कई पर्यावरणविदों ने इस परिभाषा को अत्यंत संकीर्ण बताया। उनका तर्क है कि इससे 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां खनन के लिए खुल सकती हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार—राजस्थान में अरावली की करीब 90% पहाड़ियां 100 मीटर की शर्त पूरी नहीं करतीं
इससे केवल 8–10% क्षेत्र ही कानूनी संरक्षण में रह जाएगा
पर्यावरणविदों का कहना है कि अरावली सिर्फ ऊंचाई नहीं, बल्कि पूरा पारिस्थितिकी तंत्र है।
सुप्रीम कोर्ट का रुख क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल—नए खनन पट्टों पर रोक बरकरार रखी है
अरावली के लिए बेहतर प्रबंधन योजना बनाने के निर्देश दिए हैं
ऐसे क्षेत्र चिन्हित करने को कहा है, जहां खनन पूरी तरह प्रतिबंधित रहेगा
विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) के पूर्व महानिदेशक दिनेश गुप्ता का कहना है कि 2008 में बनी समिति ने भी 100 मीटर कंटूर से नीचे के क्षेत्रों को नॉन-अरावली मानने की सिफारिश की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने तब स्वीकार किया था। उनके अनुसार रेगिस्तान फैलने के पीछे कई अन्य कारण भी होते हैं, सिर्फ खनन ही एकमात्र वजह नहीं है।
सियासत कैसे गरमाई?
‘सेव अरावली’ अभियान अब राजनीतिक मुद्दा बन चुका है।
कांग्रेस नेता अशोक गहलोत ने इसे जल, जंगल और भविष्य से जुड़ा संकट बताया उन्होंने चेताया कि अरावली कमजोर हुई तो पीने के पानी और पर्यावरण पर गहरा असर पड़ेगा
वहीं—भाजपा मंत्री भूपेंद्र यादव ने कांग्रेस पर राजनीतिक लाभ लेने का आरोप लगाया
लेकिन भाजपा के वरिष्ठ नेता राजेंद्र राठौड़ ने भी सरकार से सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटिशन दायर करने की मांग कर दी